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सुन मेरे हमसफर 41

  41       समर्थ सारांश के अचानक थे अनाउंसमेंट से परेशान हो गया। जिस सख्त लहजे में सारांश ने अपनी बात रखी थी और समर्थ की शादी की बात की थी, इससे समर्थ का परेशान होना लाजमी था। एक तो वैसे ही वह अपने और तन्वी के रिश्ते को ना कोई नाम दे पा रहा था और ना ही उसने आगे बढ़ कर एक कदम भी उठाया जा रहा था। वही तन्वी उससे उम्मीद लगाए बैठी थी जो शायद धीरे-धीरे टूटने लगा था।      समर्थ एकदम से बोल पड़ा "मैं कोई शादी नहीं करने वाला। यह मेरा फैसला है और मेरे फैसले को कोई नहीं बदल सकता।"      घर वाले भी सारांश के इस अनाउंसमेंट से थोड़े सदमे में थे लेकिन किसी को तो सकती दिखानी थी! समर्थ की शादी हो जाए इससे बढ़कर और कुछ चाहिए भी नहीं था। लेकिन समर्थ ने भी जैसे अपना फैसला सुना दिया हो कि वह शादी नहीं करेगा।      सबने समर्थ की तरफ देखा। सिया ने कहा "समर्थ बेटा! आखिर इसमें बुराई क्या है? तू क्यों शादी नहीं करना चाहता? इस उम्र में कोई लड़की तुझसे शादी करने को तैयार है, तेरे लिए रिश्ता आया है तो फिर हर्ज ही क्या है?"       समर्थ ने अपनी दादी का हाथ पकड़कर घुटने के बैठा और कहा "ये मेरा

सुन मेरे हमसफर 40

 40    दोपहर के 3:00 बज रहे थे और दिन धीरे धीरे ढलने लगा था। अव्यांश ने पूछा तो नहीं कि उसके पापा को समर्थ के बारे में क्या बात करनी थी, लेकिन अगर यह बात सिर्फ उन्होंने अव्यांश के साथ शेयर की है इसका मतलब बात कुछ अलग ही है। अगर ये बिजनेस से रिलेटेड नहीं है तो क्या पर्सनल हो सकता है?    अव्यांश अभी यह सब सोच ही रहा था कि उसका फोन एक बार फिर बजा। इस बार कॉल उसी ब्यूटीशियन का था, जिसको उसने अप्वॉइंट किया था। नंबर देखकर अव्यांश ने कॉल उठाया और कहा "हेलो मिस ली! आप तैयार है तो मैं भेज दूं उन्हें?"      दूसरी तरफ से लीना ने कहा "लेकिन सर! आपने तो मुझे आने को कहा था। फिर एकदम से प्लान चेंज कर रहे हैं, क्यो?"      अव्यांश ने कहा "अब प्लान थोड़ा सा चेंज है। जो भी चेंज है मैं आपको मैसेज करके भेज दूंगा। यहां मैं ज्यादा बात नहीं कर सकता, आप बस तैयार रहना।" थोड़ा बहुत समझा कर अव्यांश ने फोन रख दिया और कमरे में गया जहां निशी बिस्तर पर लेटी हुई थी।      अव्यांश एकदम से जाकर उसके बगल में लेट गया तो निशि हड़बड़ाकर उठी और कहां "तुम्हें कोई और जगह नहीं मिली सोने को? तु

सुन मेरे हमसफर 39

  39    निशी फ्रेश होकर किचन में कई तो देखा, रेनू जी नाश्ता तैयार करने में लगी हुई थी। अपनी मां को एक बार फिर इतना परेशान होते देख निशी ने उनका हाथ पकड़ा और एक तरफ बैठाते हुए बोली "यह क्या कर रहे हो आप? इतना काम करोगे तो जाओगे और तबीयत खराब हो जाएगी। फिर कौन देखेगा आपको? मैं तो चली जाऊंगी यहां से, फिर सारी रिस्पांसिबिलिटी पापा घर आ जाएगी। अब पापा इस उम्र में ऑफिस देखेंगे या आपको? थोड़ा तो अपना ध्यान रखा करो आप!"      रेनू जी ने अपनी बेटी को समझाते हुए कहा "अरे कौन सा ज्यादा काम कर लिया मैंने! वैसे भी, दामाद जी पहली बार घर आए है तो उनके लिए थोड़ा तो यह सब बनता ही है! और कहां कुछ खास बना रही हूं मैं? हल्का फुल्का नाश्ता ही तो है।"      निशी ने अपने दोनों हाथ आपस में फोल्ड किए और सख्त लहजे में बोली "दामाद है, कोई भगवान नहीं जिसके लिए छप्पन भोग चौरासी व्यंजन परोसने होंगे। इंसान है वह, उसका भी पेट है कोई कुआं नहीं। कल भी आपने थोड़ा-थोड़ा करके बहुत कुछ बना दिया था और उसने कितना खाया? थोड़ा सा। अभी कल का खाना इतना सारा फ्रिज में बचा हुआ है, और आप अभी फिर नाश्ता बनाने

सुन मेरे हमसफर 38

  38     सुबह जब निशी की आंख खुली तो उसने कुछ देर एकटक अपने छत से लटके पंखे को देखा फिर उठकर अपने दोनों बाजू फैलाकर अंगड़ाई ली जिससे उसका हाथ अव्यांश के चेहरे से टकराया और वो चौक गई। उसे लगा कहीं अव्यांश की नींद ना खुल गई हो लेकिन अव्यांश अभी भी वैसे ही सो रहा था। कल रात काफी देर तक काम करने की वजह से कुछ घंटे पहले ही अव्यांश की आंख लगी थी और उन दोनों के बीच जो तकियों की दीवार थी, वो ना जाने कहां बिखर गई थी। पिछली बार भी ऐसे ही हुआ था।     'तो क्या वाकई मैंने ही नींद में इन तकियों को हटाया था?' निशी सोच में पड़ गई, क्योंकि दो बार वह और अव्यांश एक बिस्तर पर सोए और हर बार उठने पर उसने खुद को अंशु के बेहद करीब पाया। इतना करीब कि जिसके बारे में सोचकर ही निशी के रोंगटे खड़े हो जाते थे। हालांकि अव्यांश निशी से पहले उठ जाता था, फिर भी वो खुद को अव्यांश के साइड ही पाती थी।      निशी ने कन्फ्यूजन में अव्यांश की तरफ देखा। उसके चेहरे पर बिखरे बाल उसे और भी ज्यादा खूबसूरत लग रहे थे। ना चाहते हुए भी उसके हाथ अव्यांश के बालों को समेटने के लिए आगे बढ़े लेकिन अव्यांश ने उसका हाथ पकड़ लिया और

सुन मेरे हमसफर 37

  37 बंगलुरू     अव्यांश सब कुछ भूल कर घर के लिए निकल पड़ा। रास्ते में उसका फोन बजा देखा तो सुहानी उसे कॉल कर रही थी। अव्यांश ने कॉल रिसीव किया और कहा "बोलिए महारानी जी! क्या सेवा कर सकता हूं मैं आपकी?"     सुहानी का दिल तो किया उसे सबसे पहले गालियों से स्वागत करें। लेकिन इस वक्त कुछ काम था इसलिए वह बड़े प्यार से बोली "अंशु! सुन ना। क्या कर रहा है अभी?"      अव्यांश की एक भौंह टेढ़ी हो गई। उसने अपना निचला होंठ दांत से काटा और बोला "मैं कहां हूं, क्या कर रहा हूं, क्या करने जा रहा हूं, पहले तो ये सब कभी कोई मतलब नहीं रखा तो आज क्यों पूछ रही है?"      सुहानी उसे मक्खन लगाने के अंदाज में बोली "तू भी ना! बहन हूं मैं तेरी, कभी तो मुझ पर भरोसा कर लिया कर। तू इतने टाइम तक हमारे साथ नहीं था। आया भी तो 1 दिन के लिए और फिर वापस चला गया। तेरी याद आ रही थी इसलिए तुझे फोन किया।"      अव्यांश अपनी प्यारी बहन को ना जाने, ऐसा तो हो ही नहीं सकता था। सुहानी की बात पूरी होती उससे पहले ही अव्यांश ने कहा "बस बस! ज्यादा फुटेज खाने की जरूरत नहीं है। सीधे सीधे बता क

सुन मेरे हमसफर 36

 36     अव्यांश पिछले कई घंटों से अपने लैपटॉप पर नजरें गड़ाए बैठा था। उसकी उंगलियां कीबोर्ड पर बिना रुके चल रही थी। कभी वो अपने लैपटॉप स्क्रीन पर कोई फाइल खोल कर देखता तो कभी अपने पास में रखें किसी फाइल के डाक्यूमेंट्स खोल कर देखता। शिल्पी भी उसके साथ बैठी उसके साथ काम में हेल्प करने की कोशिश कर रही थी।      काम तो बस बहाना था, उसे अव्यांश के साथ ज्यादा से ज्यादा वक्त गुजारना था। वह मौका जो शायद उसे अब कभी मिलने वाला नहीं था। अव्यांश के साथ रहने के लिए वह कभी किसी फाइल के पन्ने पलटती तो कभी किसी और के, लेकिन उसकी नजरें रह रह कर अव्यांश पर ही जाती।    शिल्पी ने धीरे से नजर घुमा कर घड़ी की तरफ देखा तो घड़ी में रात के 10:00 बज रहे थे। अव्यांश को हल्की उबासी आने लगी तो उसने कहा "आई थिंक, यहां पर काम खत्म कर लेना चाहिए। बाकी कल के लिए। मैं यह सब घर पर ही कर लूंगा।"      अव्यांश ने लैपटॉप बंद करना चाहा लेकिन शिल्पी ने उसे रोक दिया और कहा "अव्यांश! मैं समझ रही हूं लेकिन तुम खुद सोचो ना, तुम यहां अपनी वाइफ के साथ टाइम स्पेंड करने आए हो और कल भी अगर तुम ऑफिस आ गए या ऑफिस के काम म

सुन मेरे हमसफर 35

 35     समर्थ की सांसो को अपने चेहरे पर महसूस करते ही तन्वी की आंखें बंद हो गई। उसे तो वैसे भी समर्थ का चेहरा नजर नहीं आ रहा था। समर्थ कुछ देर तो तन्वी के चेहरे को देखता रहा फिर झुक कर अपने होठों से उसके माथे को चूम लिया। तन्वी अंदर तक सिहर उठी। समर्थ से इतनी नज़दीकियां उसने कभी महसूस नहीं की थी।      समर्थ बिना कुछ कहे उसे अपने प्यार के एहसास में भिगो देना चाहता था लेकिन तन्वी उसके मुंह से सुनना चाहती थी। खामोशियां हर जगह सुकून नहीं देती, कभी-कभी कहना बहुत जरूरी हो जाता है। लेकिन समर्थ ना जाने क्यों खुद को तन्वी के करीब आने से रोके हुए था। कुछ था उसके मन में जो उसे इन दूरियों को मिटाने की इजाजत नहीं दे रहा था, लेकिन क्या? यह तो तन्वी भी जानना चाहती थी और समर्थ खुद भी इसे खुलकर नहीं कह पा रहा था।       बारिश जब तेज होने लगी तो समर्थ ने अपने हाथ में पकड़ा अपना कोट तन्वी के कंधे पर डाल दिया और कहा "चलो मैं तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ देता हूं।"      तन्वी ने अपनी आंखें खोली और कुछ देर तक तो उसे देखती रही। शायद वह समर्थ से कुछ और ही उम्मीद कर रही थी, शायद कुछ ज्यादा ही। उसने फीकी ह

सुन मेरे हमसफर 34

 देर शाम हो चुकी थी। ऑफिस के सारे एंप्लॉयी घर जा चुके थे लेकिन समर्थ अभी भी किसी सोच में गुम था। सारांश ने उसे घर चलने को कहा भी लेकिन काम का बहाना बनाकर वो वही रुक गया। पूरे ऑफिस में खामोशी फैली हुई थी। सन्नाटा इतना ज्यादा था कि घड़ी की टिक टिक से ज्यादा उसे अपने दिल की धड़कन सुनाई दे रही थी। समर्थ ने अपने दिल पर हाथ रखा और खुद को शांत किया। ये दिल भी ना, बड़ा ही अजीब चीज है। कब किस बात पर बेचैन हो जाए पता नही चलता।      श्यामा ने फोन किया और समर्थ को घर आने को कहा तो समर्थ ने अपनी मां से काम का बहाना बनाया लेकिन श्यामा ने डांट लगाई और कहा, "सोमू! मुझे कुछ नहीं पता। तू आ रहा है बस आ रहा है। अगर तू अभी ऑफिस से नही निकला तो मैं आ जाऊंगी तुझे लेने। इसीलिए बेहतर है, घर आ जाओ।"    समर्थ ने ओवरटाइम का बहाना बनाने की कोशिश की लेकिन श्यामा ने कहा "ओवरटाइम करने की जरूरत नहीं है। अगर जरूरत है तो वो घर पर भी हो सकता है, मैं करूंगी हेल्प। अब ये तुम पर है कि तुम मेरी हेल्प कहां लेना चाहोगे, ऑफिस में या घर पर?"     समर्थ के पास अब और कोई रास्ता नही था। उसे अकेले रहना था, खुद से